Faqir Baba Ji was born on 18 Nov, 1886 at village Panjhal (then in District Hoshiarpur Punjab) now District Una of Himachal Pradesh. He left for the Anami-Dham on 11 Sept. 1981. In obedience to the command of Sat Guru Data Dayal Ji Maharaj, he devoted his whole life to speak out his personal experiences and research in the field of physical, mental and spiritual life to the world.
His teachings to each one and all are "Be Pure in thought, word and action, hate no one but love all. As we sow, so shall we reap. Sow love and justice, reap the same and live a happy and peaceful family life".
Life of his holiness is given in the following chapters in the form of Autobiography as dictated by his holiness in 1978. Thereafter are given the secrets of reality as revealed by his holiness. However before introducing you to the life and teaching of his holiness, it is essential to put in black and white some remarkable events of 1980 and 1981.
By 1980 Param Dayal Ji Maharaj had started to feel convinced that he had very sincerely and honestly fulfilled the promise given to his Satguru. So Baba Ji wrote his last will on 20-04-1980 regarding his successors and working of the trust which in original is reproduced below, so that it may not fall a prey to misinterpretation at any level.
मैं फकीरचंद उमर 94 साल पुत्र पंडित मस्तराम पुत्र श्री दसौंधी राम वासी मकान नं. 18 रेलवे मंडी होशियारपुर दा हां. जोकि मैंने आपणे गुरु महर्षि शिव व्रतलाल बरमन जी जोकि मेरे सत्गुर थे. उनके हुकम अते आज्ञा के मुताबिक कि शरीर छोड़ने से पहले शिक्षा को बदल जाना, उनका हुकम था इस लई मैंने सेठ दुर्गादास जो अब मर चुके हैं, उनकी मदद से आज से पहले अठारह साल होए हैं, मानवता मन्दिर की बुनियाद रखी थी, और उसका ट्रस्ट कायम किया गया है, जो कि रजिस्टर्ड है. मेरे मरने के बाद मेरे खून का कोई ट्रस्टी नहीं बन सकता है हाँ पर सेवा कर सकता है, मन्दिर में नौकरी कर सकता है, मगर मन्दिर के इन्तजाम में कोई दख़ल नहीं दे सकता है. मैंने आपणे जिन्दगी के तजरबे रूहानी, गृहस्थी, मज़हबी लाईन पर सफ़र करने के बाद यह नतीजा निकाला है कि सबसे पहले दुनिया को इन्सान बनने की ज़रूरत है. इस लई मैंने गृहस्थ, सोशल और पोलिटिकल लाईन वालों को इन्सान बनने की आवाज़ दी है. मेरी मन्दिर से गैर हाजिरी में श्री मुन्शी राम भगत जो यहाँ के सेक्रेटरी हैं उनको नामदान देने, जीवों को हिदायत करने और दुखी अशांत प्राणियों की मदद करने के लिए, उनको मुकरर किया है और इनके बाद जां इन की मौजूदगी में डाक्टर I.C. शर्मा जो बडे तालीम याफ़ता और परमार्थ और अभ्यास वग़ैरा के हैं वो मेरी जगह काम करेंगे और वोह जब यहाँ नहीं होंगे तो भगत मुन्शीराम जी मेरी जगह सत्गुरु की हैसीयत में काम करेंगे. बाकी मन्दिर का सारा हिसाब किताब ट्रस्ट के हाथ में रहेगा, यह ट्रस्ट की जुमेवारी होवेगी. मैंने शिशु स्कूल खोला हुआ है, यहाँ लडकों से कोई फीस नहीं ली जाती. पहली दफा जब बच्चा दाखल होता है तो उनके मां बाप से तहरीर लेनी पड़ेगी कि तीन बच्चों से ज्यादा बच्चे पैदा न करें, अगर तीन से ज्यादा पहले हों तो आईंदा न पैदा करें. बाकी सारा काम ट्रस्ट के हवाले है, मेरा इससे कोई मतलब नहीं है. मेरे मरने के बाद मेरी हडिडयां मानवता मन्दिर में गाड़ दें और उनके ऊपर मानवता मंदिर का झंडा जेहड़ा कि इस वक्त मानवता मंदिर पर लहराता है, वो झंडा मेरी हड्डियों पर खड़ा कर देवें. मेरा ट्रस्ट किसी दूसरे ट्रस्ट जां संस्था से कोई तुअलक नहीं रखता है, मैंने न किसी संस्था से कुछ लिया है बल्कि दिया है. मेरे सत्गुरु की समाधि जिला बनारस में लोगों ने बनवा दी है. मेरे संतमत में समाधि, कबर, मकबरा जां मरे होए महापुरुषों की पूजा नहीं है. इस लई मेरा कोई संबंध शिव समाध से नहीं है. इज्जत के ख्याल से कुछ न कुछ सालाना देता रहा हूँ. अगर मेरी मरजी के मुताबिक वहाँ कोई आचार्य काम करे जब तब हो सकेगा मैं मदद करता रहूँगा वरना नहीं. और न ही उनका कोई हक़ मुझ पर है. मेरे नाम पर बहुत से देश विदेश में मानवता के सैंटर खुले हुए हैं. वहाँ के आचार्य अपना अपना काम करते हैं. उनका और मेरे ट्रस्ट का सिवाए प्रेम के और संबंध नहीं है. इसलई हुण मैं बकायमी होश हवास अते दरुस्ती अकल नाल बराए हित मन्दिर मज़कूर पहली अते आखरी वसीयत लिख दिती है कि प्रमाण रहे.
तिथि 20.4.1980